Natasha

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लेखनी कहानी -27-Jan-2023

“अटके न रहेंगे? इस गँवार देश के छोकरे बजावेंगे हारमोनियम! चल, जैसे बने वैसे ले चल।” इतना कहकर उन्होंने जिस तरह का मुँह बनाया, उससे मेरा सारा शरीर जल उठा। उसका हारमोनियम बजाना भी हमने बाद में सुना, किन्तु वह कैसा था सो बताने की जरूरत नहीं।


इन्द्र का संकट अनुभव करके मैं धीरे से बोला, “इन्द्र, क्या रस्सी से खींचकर ले चलने से काम न चलेगा?” बात पूरी होते न होते मैं चौंक उठा। वे इस तरह दाँत किटकिटा उठे, कि उनका वह मुँह आज भी मुझे याद आ जाता है। बोले, “तो फिर जा न, खींचता क्यों नहीं? जानवर की तरह बैठा क्यों है?”

इसके बाद एक दफे इन्द्र और एक दफे मैं रस्सी खींचते हुए आगे बढ़ने लगे। कहीं ऊँचे किनारे के ऊपर से, कहीं नीचे उतर कर, और बीच-बीच में उस बरफ सरीखे ठण्डे जल की धारा में घुसकर, हमें अत्यन्त कष्ट से नाव ले चलना पड़ा। और फिर बीच-बीच में बाबू के हुक्के को भरने के लिए भी नाव को रोकना पड़ा। परन्तु बाबू वैसे ही जमकर बैठे रहे- जरा भी सहायता उन्होंने नहीं की। इन्द्र ने एक बार उनसे 'कर्ण' पकड़ने को कहा तो जवाब दिया, कि “मैं दस्ताने खोलकर ऐसी ठण्ड में निमोनिया बुलाने को तैयार नहीं हूँ।” इन्द्र ने कहना चाहा, “उन्हें खोले बगैर ही...”

“हाँ, कीमती दस्तानों को मिट्टी कर डालूँ, यही न! ले, जा जो करना हो कर।”

वास्तव में मैंने ऐसे स्वार्थ पर असज्जन व्यक्ति जीवन में थोड़े ही देखे हैं। उनके एक वाहियात शौक को चरितार्थ करने के लिए हम लोगों को- जो उनसे उम्र में बहुत छोटे थे- इतना सब क्लेश सहते हुए अपनी ऑंखों देखकर वे जरा भी विचलित न हुए। कहीं से जरा-सी ठण्ड लगाकर उन्हें बीमार न कर दें, एक छींटा जल पड़ जाने से कहीं उनका कीमती ओवरकोट खराब न हो जाय, हिलने-चलने में किसी तरह का व्याघात न हो- इसी भय से वे जड़ होकर बैठे रहे और चिल्ला-चिल्लाकर हुक्मों की झड़ी लगाते रहे।

और भी एक आफत आ गयी- गंगा की रुचिकर हवा में बाबू साहब की भूख भड़क उठी और, देखते-ही-देखते, अविश्राम बक-झक की चोटों से, और भी भीषण हो उठी। इधर चलते-चलते रात के दस बज गये हैं-थियेटर पहुँचते-पहुँचते रात के दो बज जाँयगे, यह सुनकर बाबू साहब प्राय: पागल हो उठे। रात के जब ग्यारह बजे तब, कलकत्ते के बाबू बेकाबू होकर बोले, “हाँ रे इन्द्र, पास में कहीं हिन्दुस्तानियों की कोई बस्ती-अस्ती है कि नहीं? चिउड़ा-इउड़ा कुछ मिलेगा?”

इन्द्र बोला, “सामने ही एक खूब बड़ी बस्ती है नूतन भइया, सब चीजें मिलती हैं।”

“तो फिर चला चल- अरे छोकरे, जरा खींच न जोर से- क्या खाने को नहीं पाता? इन्द्र, बोल न तेरे इस साथी से, थोड़ा और जोर करके खींच ले चले?”

इन्द्र ने अथवा मैंने किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। जिस तरह चल रहे थे उसी तरह चलते हुए हम थोड़ी देर में एक गाँव के पास जा पहुँचे। यहाँ पर किनारा ढालू और विस्तृत होता हुआ जल में मिल गया था। नाव को बलपूर्वक धक्का देकर, उथले पानी में करके, हम दोनों ने एक आराम की साँस ली।

बाबू साहब बोले, “हाथ-पैर कुछ सीधे करना होगा। उतरना चाहता हूँ।” अतएव इन्द्र ने उन्हें कन्धों पर उठाकर नीचे उतार दिया। वे ज्योत्स्ना के आलोक में गंगा की शुभ्र रेती पर चहलकदमी करने लगे।

हम दोनों जनें उनकी क्षुधा-शान्ति के उद्देश्य से गाँव के भीतर घुसे। यद्यपि हम लोग जानते थे कि इतनी रात को इस दरिद्र खेड़े में आहार-संग्रह करना सहज काम नहीं है तथापि चेष्टा किये बगैर भी निस्तार नहीं था। इस पर, अकेले रहने की भी उनकी इच्छा नहीं थी। इस इच्छा के प्रकाशित होते ही इन्द्र उसी दम आह्नान करके बोला, “नवीन भइया, अकेले तुम्हें डर लगेगा- हमारे साथ थोड़ा घूमना भी हो जायेगा। यहाँ कोई चोर-ओर नहीं है, नाव कोई नहीं ले जायेगा। चले न चलो।”

नवीन भइया अपने मुँह को कुछ विकृत करके बोले, “डर! हम लोग दर्जी पाड़े के लड़के हैं- यमराज से भी नहीं डरते- यह जानते हो? फिर भी नीच लोगों की डर्टी (गन्दी) बस्ती में हम नहीं जाते। सालों के शरीर की बू यदि नाक में चली जाय तो हमारी तबियत खराब हो जाए।” वास्तव में उनका मनोगत अभिप्राय यह था कि मैं उनके पहरे पर नियुक्तर होकर उनका हुक्का भरता रहूँ।

किन्तु उनके व्यवहार से मन ही मन में इतना नाराज हो गया था कि इन्द्र के इशारा करने पर भी मैं किसी तरह, इस आदमी के संसर्ग में, अकेले रहने को राजी नहीं हुआ। इन्द्र के साथ ही चल दिया।

दर्जीपाड़े के बाबू साहब ने हाथ-ताली देते हुए गाना शुरू कर दिया। हम लोगों को बहुत दूर तक नाक के स्वर की उनकी जनानी तान सुनाई देती रही। इन्द्र खुद भी मन ही मन अपने भाई के व्यवहार से अतिशय लज्जित और क्षुब्ध हो गया था। धीरे से बोला, “ये कलकत्ते के आदमी ठहरे, हमारी तरह हवा-पानी सहन नहीं कर सकते- समझे न श्रीकान्त?”

मैं बोला, “हूँ।”

तब इन्द्र उनकी असाधारण विद्या बुद्धि का परिचय, शायद श्रद्धा आकर्षित करने के लिए देते हुए चलने लगा। बातचीत में यह भी उसने कहा कि वे थोड़े ही दिनों में बी.ए. पास करके डिप्टी हो जाँयगे। जो हो, अब इतने दिनों के बाद भी इस समय वे कहाँ के डिप्टी हैं अथवा उन्हें वह पद प्राप्त हुआ या नहीं, मुझे नहीं मालूम। परन्तु, जान पड़ता है कि वे डिप्टी अवश्य हो गये होंगे, नहीं तो बीच-बीच में बंगाली डिप्टियों की इतनी सुख्याति कैसे सुन पड़ती? उस समय उनका प्रथम यौवन था। सुनते हैं, जीवन के इस काल में हृदय की प्रशस्सता, संवेदना की व्यापकता, जितनी बढ़ती है उतनी और किसी समय नहीं। लेकिन, इन कुछ घण्टों के संसर्ग में ही जो नमूना उन्होंने दिखाया इतने समय के अन्तर के बाद भी वह भुलाया नहीं जा सका। फिर भी, भाग्य से ऐसे नमूने कभी-कभी दिखाई पड़ जाते हैं- नहीं तो, बहुत पहले ही यह संसार बाकायदा पुलिस थाने के रूप में परिणत हो जाता। पर रहने दो अब इस बात को।

परन्तु, पाठकों को यह खबर देना आवश्यक है कि भगवान भी उन पर क्रुद्ध हो गये थे। इस तरफ के राह-घाट, दुकान-हाट, सब इन्द्र के जाने हुए थे। वह जाकर एक मोदी की दुकान पर उपस्थित हो गया। परन्तु दुकान बन्द थी और दुकानदार ठण्ड के भय से दरवाजे-खिड़कियाँ बन्द करके गहरी निद्रा में मग्न था। नींद की वह गहराई कितनी अथाह होती है, सो उन लोगों को लिखकर नहीं बताई जा सकती, जिन्हें खुद इसका अनुभव न हो। ये लोग न तो अम्ल-रोगी निष्कर्मा जमींदार हैं और न बहुत भार से दबे हुए, कन्या के दहेज की फिक्र से ग्रस्त बंगाली गृहस्थ। इसलिए सोना जानते हैं। दिन भर घोर परिश्रम करने के उपरान्त, रात को ज्यों ही उन्होंने चारपाई ग्रहण की कि फिर, घर में आग लगाए बगैर, सिर्फ चिल्लाकर या दरवाजा खटखटाकर उन्हें जगा दूँगा- ऐसी प्रतिज्ञा यदि स्वयं सत्यवादी अर्जुन भी, जयद्रथ-वध की प्रतिज्ञा के बदले कर बैठते तो, यह बात कसम खाकर कही जा सकती है कि उन्हें भी मिथ्या प्रतिज्ञा के पाप से दग्ध होकर मर जाना पड़ता।

हम दोनों जनें बाहर खड़े होकर तीव्र कण्ठ से चीत्कार करके तथा जितने भी कूट-कौशल मनुष्य के दिमाग में आ सकते हैं, उन सबको एक-एक करके आजमा करके, आधा घण्टे बाद खाली हाथ लौट आए। परन्तु घाट पर आकर देखा तो वह जन-शून्य है। चाँदनी में जहाँ तक नजर दौड़ती थी वहाँ तक कोई भी नहीं दिखता। 'दर्जीपाड़े' का कहीं कोई निशान भी नहीं। नाव जैसी थी वैसी ही पड़ी हुई है- फिर बाबू साहब गये कहाँ? हम दोनों प्राणपण से चीत्कार कर उठे-'नवीन भइया' किन्तु कहीं कोई नहीं। हम लोगों की व्याकुल पुकार, बाईं और दाहिनी बाजू के खूब ऊँचे कगारों से टकराकर, अस्पष्ट होती हुई, बार-बार लौटने लगी। आस-पास के उस प्रदेश में, शीतकाल में, बीच बीच में बाघों के आने की बात भी सुनी जाती थी। गृहस्थ किसान इन दलबद्ध बाघों की विपत्ति से व्यस्त रहते थे। सहसा इन्द्र इसी बात को कह बैठा, “कहीं बाघ तो नहीं उठा ले गया रे!” भय के मारे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। यह क्या कहते हो? इसके पहले उनके निरतिशय अभद्र व्यवहार से मैं नाराज तो सचमुच ही हो उठा था परन्तु, इतना बड़ा अभिशाप तो मैंने उन्हीं नहीं दिया था!

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